हम कहाँ आ गए सारे बे-सम्त हैं क़ाफ़िले कारवाँ सारबाँ एक सैलाब-ए-आदम रवाँ चार सू इक तग-ओ-ताज़-ए-कार-ए-जहाँ आसमाँ से परे सैर-ए-सय्यारगाँ और ज़मीं-दोज़ पहनाइयों में निगाहों की हैरानियाँ अब कहीं भी नहीं मातम-ए-मर्ग-ए-बे-चारगाँ हर अदालत में इंसाफ़ की अर्ज़ियाँ बातिलों की तरफ़दारियाँ फिर उठा ले गए बानू-ए-बे-रिदा सारे चुप-चाप हैं कोई पुरसाँ नहीं गिर्या-ए-तिफ़्ल-ए-ब-चारगाँ कोई सुनता नहीं ख़्वाब बीमार आँखों में मरते हुए ख़ुद-कुशी चार-सू बैन करती हुई ये मिरी अर्ज़-ए-जन्नत-निशाँ जो पुकारी गई क़िबला-ए-आर्फ़ाँ मा'बद-ए-नूरियाँ कूचा-ए-दलरबाँ बस्ती-ए-आशिक़ाँ मक़्तल-ए-हर्फ़-ओ-सौत-ओ-सदा बन गई अब लहू-रंग हैं सारे तिश्ना-लबाँ सादिक़-ओ-सादिक़ा नाज़-बर्दार-ए-आशुफ़्तगाँ