कभी अफ़्लाक से निस्बत मिली है कज-कुलाहों को कभी मैं भी तुम्हारी तरह सूरज पर लपकता था मगर इक दिन हुआ ऐसा सुनहरे रथ पे सूरज ना-गहाँ इस सम्त से गुज़रा गुज़रते रथ की ज़द में पाँव मेरा कट गया सूरज ने शान-ए-बे-नियाज़ी से शिकस्ता-पाँव की चाबुक बनाई और गया ऐसा कि फिर उस ने पलट कर भी नहीं देखा मैं उस सूरज के पीछे क्यूँ चलूँ जिस ने शिकस्ता-पा किया मुझ को मुबारक हो तुम्हें गर्म-ए-सफ़र रहना