मुझे पसंद है क्यों मेरी शाम-ए-तन्हाई ये मुझ से कोई न पूछे कि मैं बता न सकूँ कि अपने आप पे मुझ को भी ए'तिमाद नहीं किसी ने जब भी कोई बात मुझ से पूछी है दरोग़ मस्लहत-आमेज़ से लिया है काम कहा है अश्क को शबनम तो दाग़ को लाला कभी सवाद-ए-शब-ए-ग़म को नूर का हाला मैं अपने ख़ोल से निकलूँ तो किस तरह निकलूँ ज़रूर होगी सर-ए-बज़्म मेरी रुस्वाई दिखाऊँ दाग़-ए-उयूब-ए-बरहनगी क्यूँकर मैं सब के सामने नंग-ए-वजूद कहलाऊँ न होगी मुझ से ये लग़्ज़िश मुझे मु'आफ़ करो ज़माना अब भी मुझे होश-मंद कहता है नक़ीब-ए-सिद्क़-ओ-सफ़ा हक़-पसंद कहता है