इक तकल्लुम जिस पे होता है गुमान-ए-ख़ामुशी इक तरन्नुम जिस से करती है अदावत रागनी एक ज़र्रा जिस में हैं सहरा की सारी वुसअ'तें एक दरिया जिस से रह जाता है कूज़ा भी तही इक अंधेरा जिस से होती हैं फ़रोज़ाँ मशअलें इक उजाला जिस से बढ़ती है स्याही और भी एक मुबहम सी हक़ीक़त एक राज़-ए-मुन्कशिफ़ सोचता रहता हूँ अक्सर क्या है आख़िर ज़िंदगी