हर आईना इक अक्स-ए-नौ ढूँडता है समुंदर की लहरें हों या दश्त की अन-गिनत पत्तियाँ सब यही सोचती हैं कि कोई नई रूह इन में समा जाए उड़ते हुए अब्र-पारे मुसलसल तुलू-ए-सहर से नुमूद-ए-शफ़क़ तक कोई सम्त-ए-नौ ढूँडते हैं उफ़ुक़ ता उफ़ुक़ चाँदनी रात के दामन-ए-बे-कराँ में नई साअ'तों के निशाँ ढूँढती है तलाश-ए-मुसलसल की बहती हुई रौ में इक काह भी है जो सदियों से इस आस में बह रहा है कि शायद कोई क़ुव्वत-ए-कहरुबाई किसी सम्त से ना-गहाँ आ के आग़ोश में जज़्ब कर ले मगर आरज़ू की रसाई से बाहर अभी अन-गिनत मरहले राह में हैं अभी जुस्तुजू अव्वलीं मंज़िलों की हदें पार करती चली जा रही है अभी सोच की इब्तिदा-ए-सफ़र है!