मेरी गर्दन मेरे शाने मेरे लब सब के सब वीरान हैं अपने घर में एक मैं हूँ और काली रात का पुर-हौल सन्नाटा किसी के पाँव की आहट नहीं चूड़ियों और बर्तनों की खन-खनाहट भी नहीं सूई धागे एक दूजे से भरे बैठे हुए हैं धूल में लिपटी किताबें मेज़ पर बिखरी पड़ी हैं और चूल्हा लकड़ियों की याद में गुम-सुम एक कोने में पड़ा है और इक अन-जाना साया घर की चौखट पर खड़ा है इक हसीं-तस्वीर जो दीवार पर लटकी हुई है देख कर मुझ को मलूल चुपके चुपके रो रही है और काली रात का पुर-हौल सन्नाटा खिलखिला कर हँस रहा है