चाहा ऐ ज़िंदगी मैं ने तुझे अपने कामों से फ़ुर्सत मिली न मुझ को पढ़ने को कुछ लिखने को जी तड़पता रहा फ़िक्र-ए-अय्याम घर वालों का ख़याल बच्चों के मुस्कुराते चेहरे क़लम हाथ से मेरे छूटता रहा दिल-ए-ना-तवाँ को बहलाती रही फिर भी गीत ज़िंदगी के मैं गाती रही रौशन सूरज की किरन आख़िर दर आई उम्मीदों के चराग़ जल उठे खिल उठा मेरा गुलशन चहचहाने लगे परिंदे कलियों पे आ गया तबस्सुम छा गई घटा रंग-ओ-नूर की 'यासमीन' गीत ख़ुशी के फिर गाने लगी हर शय गुनगुनाने लगी