हर्फ़ सादा-ओ-रंगीं By Nazm << मार्च 1907 यौम-ए-मज़दूर >> इक कली गुलाब की कूचा-ए-चमन में है याद एक ख़्वाब की शाम के गगन में है इस्म सब्ज़ बाब का पुर-फ़रेब बन में है नक़्श इक शबाब का साया-ए-कुहन में है इक पुकारती सदा जब्र के गहन में है दूर दूर तक हवा कोह और दमन में है Share on: