दर्द इतना था कि उस रात दिल-ए-वहशी ने हर रग-ए-जाँ से उलझना चाहा हर बुन-ए-मू से टपकना चाहा और कहीं दूर तिरे सहन में गोया पत्ता पत्ता मिरे अफ़्सुर्दा लहू में धुल कर हुस्न-ए-महताब से आज़ुर्दा नज़र आने लगा मेरे वीराना-ए-तन में गोया सारे दुखते हुए रेशों की तनाबें खुल कर सिलसिला-वार पता देने लगीं रुख़्सत-ए-क़ाफ़िला-ए-शौक़ की तय्यारी का और जब याद की बुझती हुई शम्ओं में नज़र आया कहीं एक पल आख़िरी लम्हा तिरी दिलदारी का दर्द इतना था कि उस से भी गुज़रना चाहा हम ने चाहा भी मगर दिल न ठहरना चाहा