जहाँ-ज़ाद कैसे हज़ारों बरस बाद इक शहर-ए-मदफ़ून की हर गली में मेरे जाम ओ मीना ओ गुल-दाँ के रेज़े मिले हैं कि जैसे वो इस शहर-ए-बर्बाद का हाफ़िज़ा हों हसन नाम का इक जवाँ कूज़ा-गर इक नए शहर में अपने कूज़े बनाता हुआ इश्क़ करता हुआ अपने माज़ी के तारों में हम से पिरोया गया है हमीं में कि जैसे हमीं हों समोया गया है कि हम तुम वो बारिश के क़तरे थे जो रात भर से हज़ारों बरस रेंगती रात भर इक दरीचे के शीशों पे गिरते हुए साँप लहरें बनाते रहे हैं और अब इस जगह वक़्त की सुब्ह होने से पहले ये हम और ये नौजवाँ कूज़ा-गर एक रूया में फिर से पिरोए गए हैं जहाँ-ज़ाद ये कैसा कोहना-परस्तों का अम्बोह कूज़ों की लाशों में उतरा है देखो ये वो लोग हैं जिन की आँखें कभी जाम ओ मीना की लिम तक न पहुँचीं यही आज इस रंग ओ रोग़न की मख़्लूक़-ए-बे-जाँ को फिर से उलटने पलटने लगे हैं ये उन के तले ग़म की चिंगारियाँ पा सकेंगे जो तारीख़ को खा गई थीं वो तूफ़ान वो आँधियाँ पा सकेंगे जो हर चीख़ को खा गई थीं उन्हें क्या ख़बर किस धनक से मेरे रंग आए मेरे और इस नौजवाँ कूज़ा-गर के उन्हें क्या ख़बर कौन सी तितलियों के परों से उन्हें क्या ख़बर कौन से हुस्न से कौन सी ज़ात से किस ख़द्द-ओ-ख़ाल से मैं ने कूजों के चेहरे उतारे ये सब लोग अपने असीरों में हैं ज़माना जहाँ-ज़ाद अफ़्सूँ-ज़दा बुर्ज है और ये लोग उस के असीरों में हैं जवाँ कूज़ा-गर हँस रहा है ये मासूम वहशी कि अपने ही क़ामत से ज़ोलीदा-दामन हैं जूया किसी अज़्मत-ए-ना-रसा के उन्हें क्या ख़बर कैसा आसेब-ए-मुबरम मेरे ग़ार सीने पे था जिस ने मुझ से और उस कूज़ा-गर से कहा ऐ हसन कूज़ा-गर जाग दर्द-ए-रिसालत का रोज़-ए-बशारत तिरे जाम ओ मीना की तिश्ना-लबी तक पहुँचने लगा है यही वो निदा के पीछे हसन नाम का ये जवाँ कूज़ा-गर भी प्यापे रवाँ है ज़माँ से ज़माँ तक ख़िज़ाँ से ख़िज़ाँ तक जहाँ-ज़ाद मैं ने हसन कूज़ा-गर ने बयाबाँ बयाबाँ ये दर्द-ए-रिसालत सहा है हज़ारों बरस बाद ये लोग रेज़ों को चुनते हुए जान सकते हैं कैसे कि मेरे गिल ओ ख़ाक के रंग ओ रोग़न तिरे नाज़ुक आज़ा के रंगों से मिल कर अबद की सदा बन गए थे मैं अपने मसामों से हर पोर से तेरी बाँहों की पहनाइयाँ जज़्ब करता रहा था कि हर आने वाले की आँखों के माबद पे जा कर चढ़ाऊँ ये रेज़ों की तहज़ीब पा लें तो पा लें हसन कूज़ा-गर को कहाँ ला सकेंगे ये उस के पसीने के क़तरे कहाँ गिन सकेंगे ये फ़न की तजल्ली का साया कहाँ पा सकेंगे जो बढ़ता गया है ज़माँ से ज़माँ तक ख़िज़ाँ से ख़िज़ाँ तक जो हर नौजवाँ कूज़ा-गर की नई ज़ात में और बढ़ता चला जा रहा है! वो फ़न की तजल्ली का साया के जिस की बदौलत हमा इश्क़ हैं हम हमा कूज़ा-गर हम हमा-तन ख़बर हम ख़ुदा की तरह अपने फ़न के ख़ुदा सर-ब-सर हम आरज़ुएँ कभी पायाब तो सर्याब कभी तैरने लगते हैं बेहोशी की आँखों में कई चेहरे जो देखे भी न हों कभी देखे हों किसी ने तो सुराग़ उन का कहाँ से पाए किस से ईफ़ा हुए अंदोह के आदाब कभी आरज़ुएँ कभी पायाब तो सर्याब कभी ये कूज़ों के लाशे जो इन के लिए हैं किसी दास्तान-ए-फ़ना के वग़ैरा वग़ैरा हमारी अज़ाँ हैं हमारी तलब का निशाँ हैं ये अपने सुकूत-ए-अजल में भी ये कह रहे हैं वो आँखें हमीं हैं जो अंदर खुली हैं तुम्हें देखती हैं हर इक दर्द को भांपती हैं हर इक हुस्न के राज़ को जानती हैं कि हम एक सुनसान हुजरे की उस रात की आरज़ू हैं जहाँ एक चेहरा दरख़्तों की शाख़ों के मानिंद इक और चेहरे पे झुक कर हर इंसान के सीने में इक बर्ग-ए-गुल रख गया था उसी शब का दुज़-दीदा बोसा हमीं हैं