वो पत्थरों के क़बीले की रेशमी लड़की रिवायतों की फ़सीलों में ख़ुद को क़ैद किए फ़रेब-ए-ज़ात की इक ख़ुशनुमा हवेली में अकेले-पन की कथा सुन रही थी फूलों से और अपने आप को बहलाए थी परिंदों से कि उस की रूह की वादी में इक हिरन-जज़्बा क़ुलांचें भरता हुआ खाइयों में दौड़ गया ये पत्थरों के क़बीले की शाहज़ादी भी हर ए'तिमाद की ज़ंजीर तोड़ कर निकली तलाश करती हुई अपना वो हिरन-जज़्बा दुखों की झील किनारे उदास आ बैठी वो ख़ार खींच रही थी अना के तलवों से कँवल हथेलियाँ छिल कर गुलाब होने लगीं शिकन शिकन था ख़यालों का पैरहन सारा लहू लहू था तमन्नाओं का बदन सारा गुलाबी उम्र के मौसम में घर से निकली थी वो पत्थरों के क़बीले की रेशमी लड़की मोहब्बतों के क़बीले में आन पहुँची थी