दावत-ए-नज़र

मैं ही मैं हूँ कोई हुश्यार कहे जाता है
वो ही वो हैं कोई सरशार कहे जाता है

हमा-ऊस्त उस की ख़ुदी के लिए मरकज़ ऐ दोस्त
उस का नादान अना भी है मताअ'-ए-हमा-ऊस्त

होश-अफ़ज़ा है मुझे ग़लग़ला-ए-हुश्यारी
काश समझे उसे तू भी जरस-ए-बेदारी

इंहिसार-ए-मन्न-ओ-तू ठीक नहीं सब समझें
वक़्त है ख़ुद को समझने का यही अब समझें

ख़ुद-शनासी से है उम्मीद कि बन जाएगा काम
वर्ना इस हाल-ए-ज़बूँ का है तबाही अंजाम

न बसारत न बसीरत न अज़ीमत हम में
काम करने की नहीं नाम को हिम्मत हम में

इक ख़ुदी थी सो किया उस को भी ग़फ़्लत के सिपुर्द
ज़िंदगी की हुई ये लहर भी यूँ दरिया बुर्द

इस तरफ़ देख फ़रीसान-ए-अरूपा की नुमूद
आज बिल-फ़े'ल जो साबित है वो उन का है वजूद

राज़-ए-तक़्दीर खुला उन के अमल से उन पर
अपने दर पय है फ़क़त बे-अमली का चक्कर

हुस्न-कारी का मज़ाक़ उन से हुआ आईना
नई दुनिया का ये मंज़र है नया आईना

ऐसी वहदत पे न हो किस लिए कसरत शैदा
एक मंज़िल से हैं हफ़्ता-ओ-मनाज़िल पैदा

उन की दुनिया है नई अपनी पुरानी दुनिया
बन गई अपने लिए राम कहानी दुनिया

और बातों में तो क्या ख़ाक मिलेगी जिद्दत
जब ज़बाँ में भी गवारा नहीं कोई जिद्दत

चश्म-ब-राह नज़र आते हैं वो नक़्द-ए-निगार
जिन की फ़ितरत को उपज से नहीं बिल्कुल सरोकार

नई तरकीब अगर उन को कहीं मिल जाए
बरहम इतने हों कि पामाल ज़मीं हिल जाए

फिर ये हैं और अदब-सोज़ मुदारातें हैं
क्या ज़माने में पनपने की यही बातें हैं


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