हो रहा है ज़िक्र पैहम आम का आ रहा है फिर से मौसम आम का नज़्म लिख कर उस के इस्तिक़बाल में कर रहा हूँ ख़ैर-मक़्दम आम का उन से हम रक्खें ज़ियादा रब्त क्यूँ शौक़ जो रखते हैं कम कम आम का तब कहीं आता है मेरे दम में दम नाम जब लेता हूँ हमदम आम का शौक़ से पढ़ते हैं उस को ख़ास-ओ-आम जब क़सीदा लिखते हैं हम आम का क्या कहूँ अस्मार की फ़िहरिस्त में नाम है सब से मुक़द्दम आम का इक फ़क़त मैं ही नहीं शैदा 'असर' शैदा है आलम का आलम आम का