जब वो अपने घरों से निकले उन के सरों पे कफ़न बंधा था दिलों में जोश आँखों में बे-ख़ौफ़ी क़बीले की बुज़ुर्ग-तरीन हस्ती ने पुकारना चाहा अपनी तलवारें लेते जाओ लेकिन उन के पत्थर होने का डर था जब वो अपनी बस्तियों से निकले उन के सीनों में दबी हुई आहें थीं होंटों पे लरज़िशें हाथ दुआओं के लिए दराज़ उस ने पुकारना चाहा अपने रज़्म-नामे लेते जाओ लेकिन ख़ामोश रही जब वो सरहदों पे पहुँचे उन की आँखों में तस्वीरें थीं दिलों में हसरतें क़दमों में लग़्ज़िशें उस ने बहुत चाहा कि उन्हें न पुकारे अपनी लोरियाँ लेते जाओ सभों ने मुड़ कर उस की तरफ़ देखा और कहा हम पत्थर नहीं हैं