ऐ अर्ज़-ओ-समा के ख़ालिक़ बे-ऐब-ओ-दाना रहीम-ओ-मालिक न जाने कितनी है मख़्लूक़ तेरी हिसाब कैसे तू रखता होगा कहीं पे इंसाँ कहीं पे शैताँ फ़रिश्ते जिन और तुयूर-ओ-हैवाँ बहर-ओ-बर में ज़मीं के भीतर संग-ओ-चोब और फ़ज़ा के अंदर हैं और भी तो करोड़ों ज़ी-रूह हैं सब के सब जो मुतीअ-ओ-क़ाएल मगर वो आलम फ़हीम जिस को कि तो ने अहसन-तरीं बनाया अशरफ़-उल-ख़ल्क़ ज़की बनाया वही जो हम हैं कि या'नी इंसाँ है दा'वा जिस को पयम्बरी का मलाइक-ओ-जिन पे बरतरी का है जिस की ख़िदमत में चाँद-सूरज हुआ समुंदर पहाड़ बादल ज़मीं का मदफ़न फ़ज़ा की वुसअ'त न जाने फिर क्या हुआ ये हम को रज़ील बनते चले गए हम बच्चों बूढ़ों पे क़हर ढा कर ख़बीस बनते चले गए हम ख़ुद अपनी बेटी बहन को अपने हवस का लुक़्मा बना रहे हैं अपनी माँ को बहू को अपनी अश्कों में हम डुबो रहे हैं अम्न की जगहों को रौंद डाला तुम्हें भी हिस्सों में बाँट डाला ख़ुदाया कोई ख़ता हुई है या शायद हम से या शायद तुझ से हिसाब में तेरे कमी है शायद या मेरी फ़ितरत बदल गई है ऐ ख़ालिक़-ए-काएनात-ओ-बरतर बस एक फ़रियाद और सुन ले हिसाब अपना तू ठीक कर ले या फिर से फ़ितरत बदल दे मेरी