तुम्हें इक ख़ूबसूरत नन्हे से घर की तमन्ना थी जिसे तुम अपना कह सकतीं सजा सकतीं जहाँ के बाम-ओ-दर को अपनी मर्ज़ी से मगर अफ़्सोस उम्र-ए-मुख़्तसर गुज़री किराए के मकानों में ज़माना कज-अदा है जीते-जी इक क़ताह-ए-अराज़ी नहीं देता ब-जुज़ दौलत मगर जब ख़ाक हो जाएँ तो मरक़द के लिए मिल जाए ज़मीं हम को बिना माँगे चलो अच्छा हुआ तुम जा बसीं शहर-ए-ख़मोशाँ में बना के छोटा सा इक घर तमन्ना तो हुई पूरी सजा लो अब इसी के बाम-ओ-दर को अपनी मर्ज़ी से