आग की इक दो लकीरें छे लकीरें दस लकीरें हाथ की मौजों से मिलने जा रही हैं हाथ की मौजों में मरने जा रही हैं घर बसाना खेल कैसा ख़ुद-कुशी है घर की नद्दी में नहाने का अमल इक सर-कशी है बाग़ में नंगे क़दम चलना शरारत की ख़ुशी है बे-वक़ूफ़ी बेवफ़ाई आज-कल इक बाँस पर चढ़ कर सितारे खा रही है भूल जाओ कौन तुम हो कौन मैं हूँ कौन वो था क्यूँकि अफ़्सानों से रंग-ए-दोस्ती तब्दील होगा चाँद कट कर सुब्ह के तन पर गिरेगा और सूरज शाम के माथे की नम टिकिया बनेगा आज तुम उस घर के दरवाज़े पे लिख दो वो सलाहुद्दीन जो 'परवेज़' भी है आज जनता से अलीगढ़ जा रहा है