दरख़्त को जैसे दो लक़ड़हारे एक आरे से काटते हैं दरख़्त चाहे घना हो जितना बड़ा हो जितना मगर ये दोनों बड़े ही आराम से उसे काटते हैं सोचो अगर ये दो की बजाए बस एक हो तो क्या हो कि एक के बस की बात होगी दरख़्त को काट कर गिराना नहीं ये मुमकिन नहीं है हरगिज़ बहुत सी दुश्वारियों से उस को गुज़रना होगा अगर वो कोशिश करे भी तो उलझनें तो होंगी बहुत से ऐसे भी मसअले होंगे जिन की ख़ातिर उदासियों से निराश हो कर वो थक के बैठे मिरी भी उलझन कुछ ऐसी ही है कि हिज्र ये भी दरख़्त जैसा घना है जानाँ बड़ा है जानाँ अकेले मैं इस को काट सकता हूँ तुम ही सोचो बहुत सी दुश्वारियों से मैं भी गुज़र रहा हूँ अगर मैं कोशिश करूँ भी तो उलझनें बहुत हैं बहुत से ऐसे भी मसअले हैं कि जिन की ख़ातिर उदासियों से निराश हो कर मैं थक के बैठा हूँ सुनो मिरी एक इल्तिजा है कि हाथ मेरा बटाने तुम आओ थोड़ा जानाँ बहुत है मुमकिन कि दोनों मिल कर ये हिज्र काटें तो ये घना पेड़ कट गिरेगा