इस महीने में ग़ारत-गरी मनअ थी, पेड़ कटते न थे तीर बिकते न थे बे-ख़तर थी ज़मीं मुस्तक़र के लिए इस महीने में ग़ारत-गरी मनअ थी, ये पुराने सहीफ़ों में मज़कूर है क़ातिलों, रहज़नों में ये दस्तूर था, इस महीनों की हुर्मत के एज़ाज़ में दोश पर गर्दन-ए-ख़म सलामत रहे कर्बलाओं में उतरे हुए कारवानों की मश्कों का पानी अमानत रहे मेरी तक़्वीम में भी महीना है ये इस महीने कई तिश्ना-लब साअतें, बे-गुनाही के कतबे उठाए हुए रोज़ ओ शब बैन करती हैं दहलीज़ पर और ज़ंजीर-ए-दर मुझ से खुलती नहीं फ़र्श-ए-हमवार पर पाँव चलता नहीं दिल धड़कता नहीं इस महीने मैं घर से निकलता नहीं