हक़ीक़ी दुश्मनी को दोस्ती के मक्र पर वर पैरहन पर ख़्वाह इस में फ़ाएदा ही क्यूँ न हो तरजीह देता हूँ कि मेरी तर्बियत में या मिरे माहौल में या फिर जिबिल्लत में यही ख़ामी वो ख़ामी है जो वज्ह-ए-तिश्ना-कामी है कि मैं सर के एवज़ भी सच से रू-गर्दां नहीं होता कभी लालच में आ कर झूट का मेहमाँ नहीं होता