जब राहें सब मसदूद हुईं सब नीस्त हुईं नाबूद हुईं दुश्मन को खोजते फिरने की थीं काविशें जो बे-सूद हुईं पसपाइयाँ जो मौजूद न थीं इक आन में आ मौजूद हुईं मैं सोच के इक दोराहे पर हैराँ आज़ुर्दा आ पहुँचा ये सारी तग-ओ-दौ तन्हा थी इस मोड़ पे भी तन्हा पहुँचा लेकिन इस तन्हा मंज़र में इक चेहरा और उभर आया जो साफ़ नज़र आया न कभी अब इतने क़रीब नज़र आया वो चेहरा दुश्मन का चेहरा इस रूप में पहली बार मिला कभी ज़ात के हर मंज़र में मिरे कभी मंज़र के उस पार मिला मैं ख़ूब उसे पहचान गया जिस रूप में वो जिस बार मिला फिर अपने दिल पे नज़र जो की आमादा पए-पैकार मिला फिर मैं ने किसी ताख़ीर बिना इक वार बहुत सफ़्फ़ाक किया ख़ुद अपना गरेबाँ चाक किया