जहाँ मैं खड़ी थी वहाँ से क़दम, दो क़दम ही का रस्ता था जिस जा पे मौसम बदलने को तय्यार बैठे थे मेरे ये बस में नहीं था कि मैं अपनी खिड़की के आगे पिघलते हुए मंज़रों में कोई अपनी मर्ज़ी का ही रंग भर दूँ ख़िज़ाँ की अकड़ती हुई ज़र्द बाँहों को अपने झरोके के आगे ये बद-रंग पीले मनाज़िर सजाने से ही रोक पाऊँ दरख़्तों की मज़बूत शाख़ों से दामन छुड़ाते हुए ज़र्द पत्तों को रोकूँ बिखरते हुए फूल लचकीली, सरसब्ज़ शाख़ों पे फिर से खिलाऊँ हवाओं की पज़मुर्दा साँसों में फिर ज़िंदगी दौड़ जाए परिंदों की चहकार उभरे, नदी मुस्कुराए जहाँ मैं खड़ी थी वहाँ से क़दम, दो क़दम ही का रस्ता था रस्ते में बिखरे हुए कितने पल थे अधूरे सफ़र थे मगर मेरे बस में नहीं था कि मैं सारे बिखरे हुए पल ही तरतीब दे दूँ मसाफ़त के मारे हुए रास्ते मंज़िलों से मिला दूँ उलझती हुई, सर पटख़ती हुई तुंद मौजों के आगे किनारे बिछा दूँ जहाँ मैं खड़ी थी वहाँ से क़दम, दो क़दम ही का रस्ता था जिस जा पे दुनिया थी, ठहरा हुआ वक़्त था जिस जगह ज़िंदगी थी मगर मेरे बस में नहीं था कि मैं ज़िंदगी से ये कह दूँ कि ठहरे हुए वक़्त से आगे कुछ पल निकलने न पाए ये दुनिया को जा के बताए मुझे साँस लेने को थोड़ी जगह चाहिए वक़्त का एक उजाला किनारा मिले ज़िंदगी से कुछ ऐसा इशारा मिले इस ज़माने का ही साथ सारा मिले मैं उसे जा के कह दूँ मगर मेरे बस में नहीं था कि मैं अपनी बाँहें उठाऊँ क़दम को बढ़ाऊँ निगाहों से उस को बुलाऊँ उसे कह ही पाऊँ कि है ये क़दम, दो क़दम ही का रस्ता जहाँ मैं खड़ी हूँ!