'ज़ेहरा' ने बहुत दिन से कुछ भी नहीं लिक्खा है हालाँकि दर-ईं-अस्ना क्या कुछ नहीं देखा है पर लिक्खे तो क्या लिक्खे? और सोचे तो क्या सोचे? कुछ फ़िक्र भी मुबहम है कुछ हाथ लरज़ता है 'ज़ेहरा' ने बहुत दिन से कुछ भी नहीं लिक्खा है! दीवानी नहीं इतनी जो मुँह में हो बक जाए चुप-शाह का रोज़ा भी यूँही नहीं रक्खा है बूढ़ी भी नहीं इतनी इस तरह वो थक जाए अब जान के उस ने ये अंदाज़ बनाया है हर चीज़ भुलावे के संदूक़ में रख दी है आसानी से जीने का अच्छा ये तरीक़ा है 'ज़ेहरा' ने बहुत दिन से कुछ भी नहीं लिक्खा है! घर बार, समझती थी, क़िलआ है हिफ़ाज़त का देखा कि गृहस्ती भी मिट्टी का खिलौना है मिट्टी हो कि पत्थर हो हीरा हो कि मोती हो घर-बार के मालिक का घर-बार पे क़ब्ज़ा है एहसास-ए-हुकूमत के इज़हार का क्या कहना! इनआम है मज़हब का जो हाथ में कोड़ा है 'ज़ेहरा' ने बहुत दिन से कुछ भी नहीं लिक्खा है! दीवार पे टांगा था फ़रमान रिफ़ाक़त का क्या वक़्त के दरिया ने दीवार को ढाया है फ़रमान-ए-रिफ़ाक़त की तक़्दीस बस इतनी है इक जुम्बिश-ए-लब पर है, रिश्ता जो अज़ल का है 'ज़ेहरा' ने बहुत दिन से कुछ भी नहीं लिक्खा है! दो बेटों को क्या पाला नादाँ ये समझती थी इस दौलत-ए-दुनिया की मालिक वही तन्हा है पर वक़्त ने आईना कुछ ऐसा दिखाया है तस्वीर का ये पहलू अब सामने आया है बढ़ते हुए बच्चों पर खुलती हुई दुनिया है खुलती हुई दुनिया का हर बाब तमाशा है माँ बाप की सूरत तो देखा हुआ नक़्शा है देखे हुए नक़्शे का हर रंग पुराना है 'ज़ेहरा' ने बहुत दिन से कुछ भी नहीं लिक्खा है! सोचा था बहन भाई दरिया हैं मोहब्बत के देखा कि कभी दरिया रस्ता भी बदलता है भाई भी गिरफ़्तार-ए-मजबूरी-ए-ख़िदमत हैं बहनों पे भी तारी है क़िस्मत का जो लिक्खा है इक माँ है जो पेड़ों से बातें किए जाती है कहने को हैं दस बच्चे और फिर भी वो तन्हा है 'ज़ेहरा' ने बहुत दिन से कुछ भी नहीं लिक्खा है