चलो कि ज़हर के दरिया की सैर की जाए उसे मथें और अमृत की खोज की जाए अपने ख़ुद-ग़रज़ इरादों की बाट बट कर के काएनात इक नई शुरूअ' की जाए वो जो दानवों को भस्म करती हो जो देवताओं को इंसान करती हो वो जिस में शिव को ज़हर पीना न पड़े वो काएनात जो सब को समान करती हो वो जिस में भेस राहु बदल न सके बदल भी ले तो अमृत को पी न सके वो जिस में कौरवों की ज़ात न हो वो जिस में सीता कोई चुरा न सके मैं जानता हूँ दुनिया बदल नहीं सकती एक हो कर के सागर को मथ नहीं सकती यूँ ही ख़याल सा गुज़रा है बे-मआ'नी सा जिस की तकमील हर हाल हो नहीं सकती फिर भी चल के देखो तो ज़हर का दरिया मथने की कोशिशें तो करो किसे पता है फिर से अमृत निकल ही पड़े