जहेज़ इक दौर में तोहफ़ा था लेकिन अब ये ला'नत है कि जो नासूर बनता जा रहा है ज़माने में इसी ला'नत का अब दस्तूर बनता जा रहा है बिंत-ए-हव्वा को जो सीम-ओ-ज़र के दो पलड़ों में तोला जा रहा है किस लिए आख़िर वो बाबुल क्या करे जिस की जवाँ बेटी के बालों में जवाँ साली में ही चाँदी उतरती जा रही है और बूढ़ी माँ की आँखों में ये जो मोती चमकते हैं तो क्या उन की कोई क़ीमत नहीं दुनिया की नज़रों में इन्ही रस्मों की जकड़न में सियह चादर की बक्कल मार कर नादार की ख़ामोश बेटी घर में बैठी बेबसी की बोलती तस्वीर बनती जा रही है यही बेहतर है पत्थर के ज़माने में चले जाएँ उन्ही रस्मों को अपना लें कि बेटी जूँही पैदा हो उसे दरगोर कर आएँ