रेशा-ए-अश्क पे टाँके हुए हम बर्ग-ए-मलाल क़र्या-ए-वहशत ओ उफ़्ताद में हैं ख़ेमा-ब-दोश अपने हिस्से की जहाँगीरी उठा लाए हैं क्या ख़बर कौन नज़र तुर्फ़ा मसीहाई हो कौन सा ज़हर तिरे हिज्र का तिरयाक़ बने बस इसी कार-ए-फ़राग़त पे है मामूर ये दिल जिस पे खुलते नहीं असरार-ए-तअ'ल्लुक़ न मिज़ाज अपनी ही धन में सुबुक-ख़ेज़ चला जाता है एक अंदेशा-ए-ईजाज़-ए-तलातुम की तरफ़ जिस की तहज़ीब पे तहरीर हैं नामे तेरे साहिरा देख कभी ज़ीस्त-मिज़ाजों की तरफ़ देख क्या रंग तिरे ख़ाक-नशीनों का हुआ पर तुझे फ़ुर्सत-ए-नज़्ज़ारा-ए-ख़ाशाक नहीं तेरी आँखों में फ़रोज़ाँ है सितारों का वफ़ूर हम कि बे-नूर चराग़ों के ख़राशीदा बदन अपनी ही लौ की सख़ावत से जले बैठे हैं हम जहाँगीर-मिज़ाजों में लुटे बैठे हैं