जब आग जली नाफ़ के नीचे तो ज़मीं फैल गई आग जली और बदन फैल गए आँखों की आवारगी बे-रंग हुई धूप हवा चाँदनी सब बस्तियों में ख़ाक उड़ी क़ाफ़िले ही क़ाफ़िले थे क़ाफ़िले जो दर्द के वतनों से चले चलते गए अजनबी ख़ुशबू की तरफ़ उस की तरफ़ जिस के लिए सारी किताबों में लिखा है वो कभी हाथ नहीं आती कबूतरों से चटाती है मगर रात के दरवाज़े पे पहुँचे तो सितारे न मिले लोग अभी सुब्ह की उम्मीद में शब काटते हैं लोग दुखी लोग अकेले हैं उन्हें रास्ता दो सीने से चिमटा लो हर इक रास्ते में जलती हुई आग बुझा दो कि बदन फैलते जाते हैं ज़मीं तंग हुई जाती है जो आग बुझाने के लिए आए थे सब ख़ाक हुए लौट नहीं पाए हवा उन के लिए दस्तकें देती है ज़मीं उन के लिए फूल खिलाती है