मैं एक संग-ए-मील हूँ हर मुसाफ़िर मेरी जानिब देखता है ला-शुऊरी तौर पर और अपने ज़ेहन में रक्खे हुए हर क़दम तस्ख़ीर-ए-मंज़िल का ख़याल बढ़ता जाता है वो अपनी राह पर बेबसी का मेरी आलम देखिए जामिद-ओ-साकित हूँ मैं अपनी जगह क्यूँ कि मैं एक संग-ए-मील हूँ जाने कितने लोग गुज़रे और गुज़़रेंगे इसी इक राह से हर किसी को अपनी मंज़िल की है धुन कोई हँसता और कोई रोता है कोई अपनी फ़िक्र में डूबा हुआ तुंद तूफ़ाँ की तरह बढ़ता कोई लड़खड़ाते पाँव और थकन से चूर जिस्म सब के चेहरों का तअस्सुर देखता रहता हूँ मैं हर मुसाफ़िर के तईं सोचता रहता हूँ मैं अक्सर यही उस की मंज़िल उस को मिल पाएगी क्या