मुझे जाने वाले का ग़म तो नहीं है कि जाना मुक़द्दर है लेकिन मुझे उस से ये पूछना है कि पहले सफ़र की हिकायात में गर तही-दामनी है तो फिर कौन सी मंज़िलों की तलब में ये अज़्म-ए-सफ़र है ये अज़्म-ए-सफ़र है तो वक़्त-ए-सफ़र फिर उदासी की बे-नूर चादर लपेटे निगाहों में वीरानियों को बसाए हर इक आने वाले से क्यूँ कह रहा है वो आँसू बहाए मुझे जाने वाले से ये पूछना है कि अंधे सफ़र की हिकायात में गर तही-दामनी है तो हम को ख़बर दे कि हम अपने पहले सफ़र ही में रस्ते बदल लें