ग़ौर के क़ाबिल है दुनिया का निज़ाम इस का हर ज़र्रा है इबरत का मक़ाम जंग से होती है पैदा मुफ़्लिसी मुफ़्लिसी से अम्न हो जाता है आम अम्न में क़ौमें कहाँ लेती हैं माल माल से बढ़ता है किब्र ऐ नेक-नाम किब्र है फिर पेश-ख़ेमा जंग का बस यही चक्कर है जारी सुब्ह-ओ-शाम आए दिन होती हैं यूँ तब्दीलियाँ कोई आक़ा बन गया कोई ग़ुलाम आदमी को ज़िंदगी में चाहिए हर घड़ी करता रहे नेकी के काम नेकियों का 'फ़ैज़' जारी हो अगर ख़ुद-बख़ुद मिट जाएँ ये झगड़े तमाम