वक़्त-ए-रुख़्सत उदास और मग़्मूम आवाज़ में उस ने मुझ से कहा था तुम्हें ख़ूबसूरत हसीं दोस्तों की रिफ़ाक़त मयस्सर है मैं कौन हूँ मेरी क़ुर्बत की हर आरज़ू सिर्फ़ जज़्ब-ए-परेशाँ है इक रोज़ आख़िर मुझे भूल जाओगे तुम मुझे याद करना भी चाहोगे शायद मगर कर न पाओगे तुम कल की लगती है बरसों पुरानी ये बे-नाम सी दास्ताँ मुझे ख़ूबसूरत हसीं दोस्तों की रिफ़ाक़त मयस्सर है मैं रोज़-ओ-शब चहचहाता हूँ बातों के जंगल उगाता हूँ जिन में मुझे मेरे दुश्मन मिरे ख़ूँ के प्यासे कई जंगली जानवर ढूँडते हैं जू-ए-याद-ए-हसीं की रवानी में कोई सुलगता हुआ अक्स है वो मुझे अपनी जानिब इशारों से अक्सर बुलाता है मानूस है गरचे लेकिन मिरा कौन है आज तहलील होता हूँ अक्स-ए-रवाँ में तिरे जिस्म में जंगलों की हवा चीख़ती है मुसलसल मिरे जिस्म में