तुम्हारे साथ चलने का मुझे जब हौसला था तुम कहाँ थीं ख़्वाब के मदफ़न में रौशन शम्अ' पा-बस्ता यहाँ से दूर का अफ़्सुर्दा ना-बीना मुसाफ़िर जब भी गुज़रेगा वो ए'जाज़-ए-बसारत से मगर महरूम गुज़रेगा पुकारेगा किसी हम-दम को जब तो गूँज के अफ़्सूँ में उस की गर्मी-ए-रफ़्तार ढूँडेगा उसे जब लज़्ज़त-ए-क़ुर्ब-ए-गुरेज़ाँ की पुरानी याद आएगी वो जल जाएगा पल-भर में तुम्हारी सूरत-ए-गुल के तसव्वुर से अगर तुम सोचती हो मावरा-ए-रोज़-ओ-शब हो वो भी शायद रोज़-ओ-शब से मावरा होगा मैं ना-बीना मुसाफ़िर हूँ न साहिल पर तुम्हारा अजनबी ठहरा मुलाक़ातों के बंजर सिलसिलों के पार क्या होगा सलासिल के तसलसुल में मिरी आवाज़ के चलते हुए गुलशन का क्या होगा