मैं और मेरी हयात यूँ तो दोनों साथ साथ चलते हैं फिर भी हम-कलाम नहीं होते जैसे एक दूसरे से ना-आश्ना या फिर दोनों की ज़बानें जुदा जुदा हालात की कश्ती में डोलते जाते हैं अंजाम से बे-ख़बर ख़तरात से बे-ख़तर आबला जिस के फूटने का इंतिज़ार एक ख़ार एक कली का मुहताज साल के बारह महीने हफ़्ते के सात दिन सुब्ह शाम उन में फँसा हुआ मैं यही इब्तिदा यही इंतिहा बस साँस का भत्ता चलता है दिन लोहे की मानिंद पिघलता है और मैं भी लावा बन कर एक दिन इन साल के बारह महीनों हफ़्ते के साथ दिनों में कभी बह जाऊँगा