वक़्त की पेशानी पर इंहिराफ़ लिख दो वक़्त कुछ भी नहीं एक फ़रेब है जिस के हम तुम ताबे' नहीं फिर भी ताबे' हैं चलो आज से ये वक़्त हमारा भी नहीं तुम्हारा भी नहीं वक़्त की पेशानी पर इंहिराफ़ लिख दो लेकिन वो ज़ंजीर क्या करें जिस से वक़्त का एक एक लम्हा तौक़ बना चलो इसी तौक़ से ज़ंजीर बजाते हैं कि कोई सुन ले अपनी सदा मैं ने पढ़ी नहीं वो हिकायत जिस का एक बाब तुम ने पढ़ा शायद मैं नहीं चाहता कि वो दर बंद हो जाए जिस से सत्तर दर खुलते हैं वक़्त की पेशानी पर इंहिराफ़ लिख दो