गवाही हश्र के दिन तमाम आज़ा के साथ हम इंसानों की ख़ाली जेब की भी मान ली जाए तो मुमकिन है कि बेड़ा पार हो जाए रज़ा और सब्र की ताकीद पर वो सिर्फ़ और सिर्फ़ ख़ाली जेब है इंसान की जो बहुत खुल कर ख़ुदा से बात कर सकती है शायद वही है जो फ़रिश्तों की लिखी सीधी सपाट आमाल की रूदाद में भी नए कुछ रंग भर सकती है शायद मगर ठहरो बहुत ख़ुश-फ़हम मत हो सुना ये है ख़ुदा की जेब ऊपर तक भरी रहती है हर दम और कभी ख़ाली नहीं होती उसे तो दोनों हाथों से लुटाना बाँटना आता है बस ऐसी रिवायत है यही तो पेँच है वो ख़ुद जिस तजरबे से दूर है उस को नज़र में रख के कोई फ़ैसला करना उसे मंज़ूर होगा क्या? अभी कुछ देर पहले लग रहा था अब हमें ऐसा नहीं लगता कि ख़ाली जेब और उस के दलाएल का कोई उस पर असर होगा तो मतलब ये हुआ हम लोग अब भी दूर हैं उतना ही जन्नत से कि जितना ये ख़याल आने से पहले थे