कस बोझ से जिस्म टूटता है इतना तो कड़ा सफ़र नहीं था वो चार क़दम का फ़ासला क्या फिर राह से बे-ख़बर नहीं था लेकिन ये थकन ये लड़खड़ाहट ये हाल तो उम्र भर नहीं था आग़ाज़-ए-सफ़र में जब चले थे कब हम ने कोई दिया जलाया कब अहद-ए-वफ़ा की बात की थी कब हम ने कोई फ़रेब खाया वो शाम वो चाँदनी वो ख़ुश्बू मंज़िल का किसे ख़याल आया तू महव-ए-सुख़न थी मुझ से लेकिन मैं सोच के जाल बुन रहा था मेरे लिए ज़िंदगी तड़प थी तेरे लिए ग़म भी क़हक़हा था अब तुझ से बिछड़ के सोचता हूँ कुछ तू ने कहा था! क्या कहा था