मुझे रंगून से जब दावत-ए-शेर-ओ-सुख़न आई तबीअत फ़ासले और वक़्त के चक्कर से घबराई दिल-ए-बरगश्ता को लेकिन ये मैं ने बात समझाई ''नहीं कुछ सुब्हा-ओ-ज़ुन्नार के फंदे मैं गीराई'' ''वफ़ादारी में शैख़ ओ बरहमन की आज़माइश है'' वहाँ रंगीनी-ए-शेर-ओ-सुख़न की आज़माइश है कराची से पिया की गोद में हिन्दोस्ताँ आया नई देहली से कहने को पुरानी दास्ताँ आया जवानी के लिए यादें मैं सू-ए-गुलिस्ताँ आया बराए अहल-ए-महफ़िल और ब-याद-ए-रफ़्तगाँ आया वो मस्कन था वो मदफ़न है बहुत से अहल-ए-ईमाँ का ''वो इक गुल-दस्ता है हम बे-ख़ुदों के ताक़-ए-निस्याँ का'' वो ऐसी सरज़मीं है जिस में अहल-ए-दिल अभी तक हैं जो शैख़ ओ बरहमन उर्दू के हैं क़ाबिल अभी तक हैं निशान-ए-'मीर'-ओ-'ग़ालिब', 'दाग़' और 'साइल' अभी तक हैं जो शमएँ बच गई हैं रौनक़-ए-महफ़िल अभी तक हैं ''नमी गोयम दरीं गुलशन गुल-ओ-बाग़-ओ-बहार अज़ मन ''बहार अज़ यार ओ बाग़ अज़ यार ओ गुल अज़ यार ओ यार अज़ मन'' उड़ा देहली से और उड़ कर मैं कलकत्ता में आ पहुँचा थका-हारा हुआ साहिल पे जैसे नाख़ुदा पहुँचा मैं अपने सुनने वालों के लिए बन कर सदा पहुँचा चला उर्दू की ख़ातिर अज़-कुजा और ता-कुजा पहुँचा मिरी उर्दू तिरी उल्फ़त में अब रंगून आया हूँ तिरे उश्शाक़ की महफ़िल में कुछ मज़मून लाया हूँ