नश्शा-ए-बादा का ख़म्याज़ा तन-ओ-जाँ का ख़ुमार दर्द अंग अंग का आँखों की जलन दिल का अज़ाब ऐ कि तू बादा-ए-सर-जोश का मुतमन्नी है तू ने सोचा है कभी अपनी तमन्ना का मआ'ल मैं कि इस कर्ब-ए-क़यामत से हूँ आगाह मुझे पेशकश जाम की करते हुए ख़ौफ़ आता है तेरे आ'साब पे ये बार-ए-मबादा हो गराँ इस दर्जा फ़र्श-ए-हस्ती पे बिखर जाए तो टुकड़े हो कर जाम हाज़िर है कि मैं और मिरा मशरब-ए-ख़ास बुख़्ल से एक भी पहलू से नहीं है मंसूब हाँ मगर जाम उठाना है तो तू सोच ज़रूर ज़र्फ़-ए-मय-ख़्वार से क़ाएम है वक़ार-ए-मय-ख़्वार