इस क़दर हम से गुरेज़ाँ क्यूँ हो कुछ नहीं हम हैं फ़क़त अक्स-ए-ख़याल एक तस्वीर का धुँदला सा निशाँ हर्फ़-ओ-मा'नी के पुर-असरार तसलसुल में कहीं अन-कही बात का एहसास-ए-ज़ियाँ अजनबी शहर में चलते चलते रास्ता हाथ पकड़ ले तो रुको जिस तरह तेज़ हवा आ के दरीचे पे कभी दस्तकें देती है चुप चाप पलट जाती है और गुज़रगाह-ए-समाअ'त में फ़क़त गूँजते हैं उस के क़दमों के निशाँ जो यक़ीं हैं न गुमाँ किसी इक लम्हा-ए-गुज़राँ की हक़ीक़त क्या है कार-ए-उल्फ़त भी अगर कार-ए-अज़िय्यत है तो फिर आख़िर इस कार-ए-अज़िय्यत की ज़रूरत क्या है