समय मेरी शख़्सियत से ख़ुद-ए'तिमादी की परत इस तरह उतार रहा है जैसे कोई ख़ानसामाँ प्याज़ के छिलके उतार रहा हो कल आज और कल के सहराओं से बगूलों के साथ अन-देखा सा कोई वजूद निकलता है और मेरी मेहनतों पे शब-ख़ून मार देता है शायद उसे पता नहीं कि इंसान जो कि हवस का पुजारी है फ़ितरतन एक जुआरी है हार जाए या जीत जाए खेल छोड़ कर नहीं उठता