आज सरहद पे ख़ामोश तोपों के होंटों पे पपड़ी की तह भी चटख़ कर गिरी है हर इक रोज़ सुब्ह सवेरे से तारीकियों की तहों तक अकेला ही चलता है सूरज उदासी से हर आँख को अपनी जानिब तवज्जोह की ख़ातिर बुलाता है लेकिन निगाहें मिलाने का हर हौसला हर बदन में फ़क़त सिसकियों की तरह जागता है अब फ़क़त आबरू का धुआँ कोहर बन के रुका है बस अब बुलबुलों के तरन्नुम में भी नौहा-ए-ज़िंदगी के सितम-ख़ेज़ तूफ़ान हैं अब फ़क़त मेरे अपने चहीतों की लाशों के अम्बार हैं अब तो ख़र भी यहाँ हिनहिनाते नहीं जंग-बंदी नहीं सरहदें भी नहीं ऐ मिरी मुझ से रूठी हुई मेरे पदमा की ऐ ज़िंदा-तर सर-ज़मीं मेरी आँखों तिरे आसमानों तिरी और मिरी सरहदों के वो सब फ़ासले जो मगर क़ुर्बतों के सिवा कुछ न थे आज क्यूँ आँख में अश्क बन के रुके हैं भला क्यूँ मुझे तेरी क़ुर्बत के सायों को धुंदलाहटों में बदलते हुए देखने के लिए ज़िंदा रहना पड़ा है