किस तरह आएगी जिस रोज़ क़ज़ा आएगी शायद इस तरह कि जिस तौर कभी अव्वल-ए-शब बे-तलब पहले-पहल मर्हमत-ए-बोसा-ए-लब जिस से खुलने लगें हर सम्त तिलिस्मात के दर और कहीं दूर से अंजान गुलाबों की बहार यक-ब-यक सीना-ए-महताब को तड़पाने लगे शायद इस तरह कि जिस तौर कभी आख़िर-ए-शब नीम-वा कलियों से सरसब्ज़ सहर यक-ब-यक हुजरा-ए-महबूब में लहराने लगे और ख़ामोश दरीचों से ब-हंगाम-ए-रहील झनझनाते हुए तारों की सदा आने लगे किस तरह आएगी जिस रोज़ क़ज़ा आएगी शायद इस तरह कि जिस तौर तह-ए-नोक-ए-सिनाँ कोई रग वाहिमा-ए-दर्द से चिल्लाने लगे और क़ज़्ज़ाक़-ए-सिनाँ-दस्त का धुँदला साया अज़-कराँ-ता-ब-कराँ दहर पे मंडलाने लगे किस तरह आएगी जिस रोज़ क़ज़ा आएगी ख़्वाह क़ातिल की तरह आए कि महबूब-सिफ़त दिल से बस होगी यही हर्फ़-ए-विदाअ की सूरत लिल्लाहिल-हम्द ब-अनजाम-ए-दिल-ए-दिल-ज़दगाँ कलमा-ए-शुक्र ब-नाम-ए-लब-ए-शीरीं-दहनाँ