मिरे जिस्म में आग ऐसी लगी है जिसे सैकड़ों क्या हज़ारों समुंदर बुझाने को आएँ तो बुझने न पाए मिरी रूह की रहगुज़ारों पे शो'ले लपकती ज़बानों के कश्कोल ले कर मिरे जिस्म से ख़ूँ का इक क़तरा-ए-आरज़ू माँगते हैं मगर जिस्म मेरा तो ख़ुद एक दरयूज़ा-गर है जो लम्हा-ब-लम्हा ख़ुद अपनी लगाई हुई आग में जल रहा है ख़यालों के साए भी इक आतिश-ए-ग़ैर-महसूस में जल रहे हैं कोई है जो मुझ को नजात इस तपिश से दिलाए कोई है जो मेरे लिए एक ऐसा समुंदर बताए जो कोई भी जाँ-दार-ओ-बे-जान मख़्लूक़ के लम्स से आश्ना तक नहीं हो जो ख़ुद अपने दर्पन में शक्ल अपनी ही देख कर जी रहा हो अगर तुम को ऐसा समुंदर मिले तो बताओ कि ये आतिश-ए-ग़ैर-महसूस ऐसे समुंदर से ही बुझ सकेगी कहाँ है समुंदर कहाँ है समुंदर कि मैं आतिश-ए-लम्स की लज़्ज़त-ए-ग़ैर-महदूद से अब पिघलने लगा हूँ