जो इल्म मर्दों के लिए समझा गया आब-ए-हयात ठहरा तुम्हारे हक़ में वो ज़हर-ए-हलाहिल सर-बसर जब तक जियो तुम इल्म-ओ-दानिश से रहो महरूम याँ आई हो जैसी बे-ख़बर वैसी ही जाओ बे-ख़बर दुनिया के दाना और हकीम इस ख़ौफ़ से लर्ज़ां थे सब तुम पर मुबादा इल्म की पड़ जाए परछाईं कहीं ऐसा न हो मर्द और औरत में रहे बाक़ी न फ़र्क़ ता'लीम पा कर आदमी बनना तुम्हें ज़ेबा नहीं इल्म-ओ-हुनर से रफ़्ता रफ़्ता हो गईं मायूस तुम समझा लिया दिल को कि हम ख़ुद इल्म के क़ाबिल न थीं आख़िर तुम्हारी चुप दिलों में अहल-ए-दिल के चुभ गई सच है कि चुप की दाद आख़िर बे-मिले रहती नहीं