कभी ऐसा तमव्वुज तुम ने देखा है कभी जज़्बात का ऐसा तमव्वुज तुम ने देखा है कि सीने में भँवर पड़ते हों तिश्ना आरज़ूओं के मगर उन को मियान-ए-मौज रस्ता भी न मिलता हो किनारे तक रसाई का इशारा भी न मिलता हो जब ऐसा हो तो हर चश्मे से धारे फूट बहते हैं वो संग ओ गिल के पुश्ते हों कि दरिया के किनारे फूट बहते हैं वही धारे मगर उन साएबानों को डुबोते हैं कि जिन के नीचे बैठ कर कुछ चाक-दामाँ लोग अश्कों और तूफ़ानों के मोती भी पिरोते हैं