गलियाँ और गलियों में गलियाँ छोटे घर नीचे दरवाज़े टाट के पर्दे मैली बद-रंगी दीवारें दीवारों से सर टकराती कोई गाली गलियों के सीने पर बहती गंदी नाली गलियों के माथे पर बहता आवाज़ों का गंदा नाला आवाज़ों की भीड़ बहुत है इंसानों की भीड़ बहुत है कड़वे और कसीले चेहरे बद-हाली के ज़हर से हैं ज़हरीले चेहरे बीमारी से पीले चेहरे मरते चेहरे हारे चेहरे बे-बस और बेचारे चेहरे सारे चेहरे एक पहाड़ी कचरे की और उस पर फिरते आवारा कुत्तों से बच्चे अपना बचपन ढूँड रहे हैं दिन ढलता है इस बस्ती में रहने वाले औरों की जन्नत को अपनी मेहनत दे कर अपने जहन्नम की जानिब अब थके हुए झुँझलाए हुए से लौट रहे हैं एक गली में ज़ंग लगे पीपे रक्खे हैं कच्ची दारू महक रही है आज सवेरे से बस्ती में क़त्ल-ओ-ख़ूँ का चाक़ू-ज़नी का कोई क़िस्सा नहीं हुआ है ख़ैर अभी तो शाम है पूरी रात पड़ी है यूँ लगता है सारी बस्ती जैसे इक दुखता फोड़ा है यूँ लगता है सारी बस्ती जैसे है इक जलता कढ़ाव यूँ लगता है जैसे ख़ुदा नुक्कड़ पर बैठा टूटे-फूटे इंसाँ औने-पौने दामों बेच रहा है!