हर्फ़ गोयाई की ज़ंजीर में जब क़ैद हुआ इस्म बना अहद बना नज़्म बना क़िस्सा-ए-काम-ओ-दहन का ग़म-ए-मतलूब बना ख़ूब-ओ-ना-ख़ूब बना हर्फ़-ए-ना-गुफ़्ता मगर ज़ेहन का आज़ार बना दिल की दीवार बना राह-ए-दुश्वार बना क़िस्सा-ए-शौक़ की वारफ़्ता कहानी न बना हीला-ए-वस्ल की ग़म-दीदा निशानी न बना वार है मंज़िल-ए-गोयाई सभी जानते हैं हर्फ़-ए-ना-गुफ़्ता के ये ज़ख़्म मगर मेरे हैं जिन को तन्हाई मिरी मुझ से सिवा जानती है