चंद साल उस तरफ़ हम शनासा निगाहों से बचते-बचाते यहीं पर मिले थे तुम्हें याद है काएनात एक टेबल के चारों तरफ़ घूमती थी हमें देख कर कितने बूढ़ों की आँखें किसी याद-ए-रफ़्ता में नम हो रही थी मगर मैं ने आँखों में अपने लिए और तुम्हारे लिए मछलियों की तरह तैरते आँसुओं में तमन्नाएँ देखीं मुझे याद है जब किसी अजनबी मेहरबाँ ने हमें फूल भेजे तो तुम कितनी नर्वस हुईं जल्द ही ख़ौफ़, ख़दशे हवा हो गए दूसरी टेबलों पर भी गुल-दस्ते हँसने लगे अब मोहब्बत का मस्कन कहीं और है ये जगह अब ज़बाँ-बंद दुश्मन का मुँह खोलने के लिए है जहाँ अपनी टेबल थी अब उस जगह एक फंदा लगा है कहाँ आ गई हो मोहब्बत का कतबा उठाए हुए आओ आगे चलें