तारकोल सा सियाह आसमान अपनी पथराई आँखों और मोम जैसी पुतलियों से गिर्या-ए-शब करता रहा वाह क्या झरना था क्या आबशार था क्या जल-तरंग था कि आदम ने ज़मीन पर सज्दा-ए-शुक्र अदा किया और अपने कफ़न तक को बे-दाग़ बारिश की तरह सफ़ेद-ओ-शफ़्फ़ाफ़ रक्खा आज बारिश काली हो गई तो क्या मैं अपने कफ़न के रंग को काला कर लूँ नहीं हरगिज़ नहीं इस से बेहतर है कि ख़ुद अपने लहू में नहा कर बे-गोर-ओ-कफ़न ही सही शहीद-ओ-सुर्ख़-रू हो जाऊँ