तपती हुई ज़मीं पर अल्लाह का जो घर है वो मर्कज़-ए-नज़र है इक रोज़ यूँ हुआ था उस्मान इब्न-ए-तलहा उस ख़ाना-ए-ख़ुदा में सरकार-ए-दो-जहाँ को जाने से रोकते थे इक ऐसा दिन भी आया सरकार-ए-दो-जहाँ जब मक्का को फ़त्ह कर के का'बे पहुँच चुके थे दस्त-ए-नबी में उस दम का'बे की कुंजियाँ थीं उस्मान इब्न-ए-तलहा शर्मिंदा सर झुकाए हैरान से खड़े थे उस रोज़ यूँ हुआ था उस फ़ख़्र-ए-दो-जहाँ ने का'बा की कुंजियों को बख़्शा उन्हें बुला कर